चिंगारी ही एक दिन ज्वाला बनती है
बूँद-बूँद ही बनकर नदी उफनती है
इस दुनिया में किसी को छोटा ना समझो
चींटी भी हाथी को भारी पड़ती है
चिंगारी ही एक दिन ..............................
इस निष्ठुर ह्रदय में थोडी दया भरो
अगर बड़े हो तो छोटों को क्षमा करो
आह की अग्नि तुम्हें एक दिन खायेगी
आह से तो भारी इस्पात पिघलती है
चिंगारी ही एक दिन ..............................
देख रहा "वो" सब कुछ उससे डरो जरा
शर्म अगर आती हो थोडी करो जरा
ऊँट पहाड़ के नीचे एक दिन आएगा
दुनिया में ना सदा किसी की चलती है
चिंगारी ही एक दिन ..............................
अपने से छोटों का शोषण करने को
अपने अंहकार का पोषण करने को
सहनशीलता धरती की मत ललकारो
धरती भी गुस्से में आग उगलती है
चिंगारी ही एक दिन ..............................
बूँद-बूँद ही बनकर नदी उफनती है
इस दुनिया में किसी को छोटा ना समझो
चींटी भी हाथी को भारी पड़ती है
चिंगारी ही एक दिन ..............................
इस निष्ठुर ह्रदय में थोडी दया भरो
अगर बड़े हो तो छोटों को क्षमा करो
आह की अग्नि तुम्हें एक दिन खायेगी
आह से तो भारी इस्पात पिघलती है
चिंगारी ही एक दिन ..............................
देख रहा "वो" सब कुछ उससे डरो जरा
शर्म अगर आती हो थोडी करो जरा
ऊँट पहाड़ के नीचे एक दिन आएगा
दुनिया में ना सदा किसी की चलती है
चिंगारी ही एक दिन ..............................
अपने से छोटों का शोषण करने को
अपने अंहकार का पोषण करने को
सहनशीलता धरती की मत ललकारो
धरती भी गुस्से में आग उगलती है
चिंगारी ही एक दिन ..............................
13 टिप्पणियां:
अपने से छोटों का शोषण करने को
अपने अंहकार का पोषण करने को
सहनशीलता धरती की मत ललकारो
धरती भी गुस्से में आग उगलती है
बहुत ही सही बात कही है आपने, कई बार तो अपने कहे जाने वाले रिश्ते भी ज्वाला बनने पर मजबूर कर देते है या किसी व्यक्ति के लिये कोई परिस्थति विशे स भी और कुछ नही उनका निरंकुश हो जाने के कारन ही चिंगारी ज्वाला बनने पर मजबुर हो जाती है,शायद....... अच्छी रचना
गुस्सा निकल जाए तो अच्छा है, किसी भी माध्यम से, वैसे यह एक उर्जा है और इसका सकारात्मक इस्तेमाल किया है आपने.
बहुत बढिया लिखा है आपने ... बहुत बहुत बधाई।
सहनशीलता धरती की मत ललकारो
धरती भी गुस्से में आग उगलती है।
बहुत सटीक लिखा है आपने.....।
पंक्तियाँ अच्छी लगीं.
> चिंगारी ही एक दिन ज्वाला बनती है
बूँद-बूँद ही बनकर नदी उफनती है
- विजय
सहनशीलता धरती की मत ललकारो
धरती भी गुस्से में आग उगलती है
यह क्रोध में लिखी हुई है मगर बहुत सटीक बातें कहती हुई सफल रचना बन गयी है.
आप ने क्रोध को सकारात्मक रूप दे दिया..yahi to एक रचनाकार होता है.
bhavon ko pradarshit karti kavita.
आपकी तो हर रचना बहुत सुन्दर होती है!
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तख़लीक़-ए-नज़र
इस निष्ठुर ह्रदय में थोडी दया भरो
अगर बड़े हो तो छोटों को क्षमा करो
आह की अग्नि तुम्हें एक दिन खायेगी
आह से तो भारी इस्पात पिघलती है
स्वपन जी
आप भी अपना क्रोध ऐसे ही निकाल दें....
रचना बहूत ही सुन्दर बनी है, बधाई हो आपको
SATYA ME ,GAZAB KI RACHNA HAI YE TO ... DER SE AANE KE LIYE MUAAFI CHAHUNGA... JAISA KI OM AARYA JI AUR ALPANA JI NE KAHA HAI KE AAPNE APNE GUSSE ME EK SAAKARAATMAK SOCH KO JANM DIYA HAI ,SAHI HAI YE EK URJA HAI AUR US URJA KA AAPNE EK SHILPI KI TARAH MUKAMMAL RACHNA KO ANJAAM DIYA HAI... BAHOT BAHOT BADHAAEE AAPKO...
ARSH
अपने से छोटों का शोषण करने को
अपने अंहकार का पोषण करने को
सहनशीलता धरती की मत ललकारो
धरती भी गुस्से में आग उगलती है
गुस्सा एक उर्जा है और इसका सकारात्मक इस्तेमाल किया है आपने.
बहुत बहुत बधाई।
धरती भी गुस्से में आग उगलती है............ वाकई बेहतरीन रचना, स्वप्न जी... आप गुस्से में लिखें या खुशी में अच्छा ही लिखते हैं.. बधाई..
बिलकुल सच कहा आपने.....चिंगारियां तो सब तरफ उठ रही हैं हैं.....अब देखें की कब वो आग बनती हैं...
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