उपरोक्त शीर्षक चित्र श्री श्री राधा श्याम सुंदर , इस्कान मंदिर वृन्दावन, तिथि 15.04.2010 के दर्शन (vrindavan darshan से साभार ).

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

क्या मिलना है उनसे जाकर................

क्या मिलना है उनसे जाकर
जिनके मन में प्यार नहीं
बेशक लक्ष्मी बरस रही हो
पर आदर सत्कार नहीं

चेहरे पर हों लगे मुखौटे
मन में कटुता भरी हुई
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने
इतने तो लाचार नहीं

करें दिखावा अपनेपन का
अलग दिखाने, खाने, के
ऐसे स्वार्थ परक लोगों का
अच्छा हो दीदार नहीं

नफरत नहीं हमें है उनसे
हाँ बेशक है प्यार नहीं
दूर दूर की "राम" भली है
करते हम तकरार नहीं

पाला पोसा "अहम्" ने उनको
और पैसे ने "बड़ा" किया
वो वाणी किस काम की जिससे
बहे प्रीत की धार नहीं.
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19 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बेहतरीन,

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत सुन्दर व सही कविता है।
घुघूती बासूती

vandana gupta ने कहा…

swarthparak logon ke liye ek tamacha hai........sahi kaha aapne.

"अर्श" ने कहा…

अच्छे भाव अच्छी रचना ... बधाई...


अर्श

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

योगेश जी बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

समय चक्र ने कहा…

सुन्दर कविता है...बधाई.

ओम आर्य ने कहा…

badhiya!!!

Vinay ने कहा…

सुन्दर कविता के लिए बधाई स्वीकार करें!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

लक्ष्मी पुत्रों के घर में , वाणी पुत्रों का काम नही।
वहाँ बसेरा मत करना,जहाँ मिलता हो आराम नही।

गौतम राजऋषि ने कहा…

बहुत सुंदर योगेश जी...बहुत सुंदर
साफ,कोमल,सामान्य शब्दों में एक बेहतरीन रचना

बधाई !

Alpana Verma ने कहा…

चेहरे पर हों लगे मुखौटे
मन में कटुता भरी हुई
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने
इतने तो लाचार नहीं


-खूब लिखा है..
मुखोटे ओढे बहुत से ऐसे लोग मिल जायेंगे अपने आस पास ऐसे ही!
बच के इन से निकल पायें तो गनीमत होगी!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

चेहरे पर हों लगे मुखौटे
मन में कटुता भरी हुई
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने
इतने तो लाचार नहीं

गीत याद करा दिया आपने स्वपन ji............
"क्या मिलिए ऐसे लोगों को......जिनकी फितरत छुपी हुयी..."

बहुत सुन्दर गीत है आपकी रचना

sandeep sharma ने कहा…

बहुत उम्दा....

Puneet Sahalot ने कहा…

aaj ke zamaane ki sachhi tasveer aisi hi hai...

Divya Narmada ने कहा…

सार्थक कविता मन भाई है. बधाई.

Divya Narmada ने कहा…

जब-जब वस्त्र बदलते पेड़.
तब-तब रहे निखरते पेड.

इंसानों सम देह न बेचें.
लगते 'सलिल' संवरते पेड़.

संवेदनपूर्ण लेखन...बधाई...

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

चेहरे पर हों लगे मुखौटे
मन में कटुता भरी हुई
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने
इतने तो लाचार नहीं

स्वप्न जी यथार्थ कह रहे है
सम्वेदनाओं के सागर बह रहे हैं
स्वाभिमान का जखीरा है
स्वप्न की पंक्तियों में कबीरा है

बधाई

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

बहुत सुंदर
एक बेहतरीन रचना

बधाई स्वीकार करें

चन्द्र मोहन गुप्त

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

चेहरे पर हों लगे मुखौटे,
मन में कटुता भरी हुई|
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने,
इतने तो लाचार नहीं|
बहुत सुन्दर!बेहतरीन रचना |बधाई स्वीकार करें!