क्या मिलना है उनसे जाकर
जिनके मन में प्यार नहीं
बेशक लक्ष्मी बरस रही हो
पर आदर सत्कार नहीं
चेहरे पर हों लगे मुखौटे
मन में कटुता भरी हुई
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने
इतने तो लाचार नहीं
करें दिखावा अपनेपन का
अलग दिखाने, खाने, के
ऐसे स्वार्थ परक लोगों का
अच्छा हो दीदार नहीं
नफरत नहीं हमें है उनसे
हाँ बेशक है प्यार नहीं
दूर दूर की "राम" भली है
करते हम तकरार नहीं
पाला पोसा "अहम्" ने उनको
और पैसे ने "बड़ा" किया
वो वाणी किस काम की जिससे
बहे प्रीत की धार नहीं.
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जिनके मन में प्यार नहीं
बेशक लक्ष्मी बरस रही हो
पर आदर सत्कार नहीं
चेहरे पर हों लगे मुखौटे
मन में कटुता भरी हुई
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने
इतने तो लाचार नहीं
करें दिखावा अपनेपन का
अलग दिखाने, खाने, के
ऐसे स्वार्थ परक लोगों का
अच्छा हो दीदार नहीं
नफरत नहीं हमें है उनसे
हाँ बेशक है प्यार नहीं
दूर दूर की "राम" भली है
करते हम तकरार नहीं
पाला पोसा "अहम्" ने उनको
और पैसे ने "बड़ा" किया
वो वाणी किस काम की जिससे
बहे प्रीत की धार नहीं.
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19 टिप्पणियां:
बहुत बेहतरीन,
बहुत सुन्दर व सही कविता है।
घुघूती बासूती
swarthparak logon ke liye ek tamacha hai........sahi kaha aapne.
अच्छे भाव अच्छी रचना ... बधाई...
अर्श
योगेश जी बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
सुन्दर कविता है...बधाई.
badhiya!!!
सुन्दर कविता के लिए बधाई स्वीकार करें!
लक्ष्मी पुत्रों के घर में , वाणी पुत्रों का काम नही।
वहाँ बसेरा मत करना,जहाँ मिलता हो आराम नही।
बहुत सुंदर योगेश जी...बहुत सुंदर
साफ,कोमल,सामान्य शब्दों में एक बेहतरीन रचना
बधाई !
चेहरे पर हों लगे मुखौटे
मन में कटुता भरी हुई
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने
इतने तो लाचार नहीं
-खूब लिखा है..
मुखोटे ओढे बहुत से ऐसे लोग मिल जायेंगे अपने आस पास ऐसे ही!
बच के इन से निकल पायें तो गनीमत होगी!
चेहरे पर हों लगे मुखौटे
मन में कटुता भरी हुई
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने
इतने तो लाचार नहीं
गीत याद करा दिया आपने स्वपन ji............
"क्या मिलिए ऐसे लोगों को......जिनकी फितरत छुपी हुयी..."
बहुत सुन्दर गीत है आपकी रचना
बहुत उम्दा....
aaj ke zamaane ki sachhi tasveer aisi hi hai...
सार्थक कविता मन भाई है. बधाई.
जब-जब वस्त्र बदलते पेड़.
तब-तब रहे निखरते पेड.
इंसानों सम देह न बेचें.
लगते 'सलिल' संवरते पेड़.
संवेदनपूर्ण लेखन...बधाई...
चेहरे पर हों लगे मुखौटे
मन में कटुता भरी हुई
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने
इतने तो लाचार नहीं
स्वप्न जी यथार्थ कह रहे है
सम्वेदनाओं के सागर बह रहे हैं
स्वाभिमान का जखीरा है
स्वप्न की पंक्तियों में कबीरा है
बधाई
बहुत सुंदर
एक बेहतरीन रचना
बधाई स्वीकार करें
चन्द्र मोहन गुप्त
चेहरे पर हों लगे मुखौटे,
मन में कटुता भरी हुई|
क्यूँ जाएँ हम उनसे मिलने,
इतने तो लाचार नहीं|
बहुत सुन्दर!बेहतरीन रचना |बधाई स्वीकार करें!
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