अजनबी सा लग रहा है ये शहर
जैसे इससे वास्ता कोई न था
घूम फिर कर फिर वहीँ पर आ गए
कोई मंजिल रास्ता कोई न था
क्यूँ किसी से प्यार की उम्मीद की
बस उधारी थी जमा कोई न था
कर दिया खाली किराये का मकान
लामकां थे हम मकान कोई न था
छोड़ कर duniya ,akele चल दिए
hamsafar या kaarvan कोई न था
स्वप्न की कोई haqiqat थी कहाँ
बस tasavvur था निशान कोई न था
योगेश स्वप्न
2 टिप्पणियां:
इस बारी तो सच में मज़ा आगया बहोत खूब बहोत सुंदर ... अपनी पचासवी पोस्ट पे आपका स्नेह और आशीर्वाद चाहूँगा ....
अर्श
क्यूँ किसी से प्यार की उम्मीद की
बस उधारी थी जमा कोई न था
कर दिया खाली किराये का मकान
लामकां थे हम मकान कोई न था
waah bahut hi badhiya badhai
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