मैं
तो , सिर्फ़ खामोशी हूँ
शून्य से चलकर
शून्य की ओंर
बढती खामोशी
प्रकाश से चलकर
प्रकाश की ओर
बढती खामोशी
मन, बुध्धि ,
इन्द्रियों से परे
हवा के साथ -२
बहती खामोशी
अनंत के गहनतम
स्थल में छिपी खामोशी
प्रेमी के ह्रदय में छिपी
तड़पती खामोशी
ब्रह्म रंध्र से निकल
ब्रह्माण्ड के कण कण में व्याप्त
खामोशी
कहीं परमाणु में सिमटी
और कहीं
विराट से विराट तर
होती खामोशी
यानि
"मैं"
-----
2 टिप्पणियां:
बहुत ही बढ़िया रचना . योगेश जी जी निरंतर लिखते रहिये . आप बहुत अच्छा लिख रहे है .
महेंद्र मिश्रा
जबलपुर
bahut umda rachna hai.. badhai..
एक टिप्पणी भेजें