जो अपनी औकात में रहकर करता बात
उसको सभ्य समाज की पड़े कभी ना लात
भूल गया निज वक़्त तू कुर्सी पा भरमाय
घूस खाए चोरी करे सबकी लेता हाय
तुझको लगता था बुरा, जो औरों का कर्म
वही कर्म अब तू करे , गई कहाँ तेरी शर्म
कुर्सी के बल कूदता , कहाँ गए संस्कार
"केवल" कुर्सी छोड़कर ,पायेगा तिरस्कार
ये शतरंज का खेल है, खा जायेगा मात
सवा सेर है सेर को, गाँठ बाँध ले तात
रहे सुरक्षित वो सदा , झुका हुआ जो वृक्ष
तने हुए को काटना , है समाज का लक्ष्य
देने को कुछ है नहीं , बोल तो मीठे बोल
अरे जाग अब त्याग दे , अंहकार का खोल
***********************
कुछ दोहे लिखने की कोशिश की है कहाँ तक सफल हूँ , पता नहीं ,कुछ ख़ास नया भी नहीं दे पाया हूँ पाठकों से विनम्र निवेदन है कमेंट्स देते समय प्रशंसा करें ना करें , कोई भी कमी देखें ज़रूर बताएं, मुझे उस कमी को दूर करने में सहायता मिलेगी, मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँगा. धन्यवाद.